ओडिशा के कोरापुट जिले के नारायणपटना और बंधुगांव ब्लॉकों में पाई जाने वाली नारायणपटना बकरी न केवल एक पशुधन है, बल्कि स्थानीय आदिवासी समुदायों की सांस्कृतिक और आर्थिक पहचान का प्रतीक भी है। यह देशी बकरी नस्ल अपनी अनूठी शारीरिक विशेषताओं, कठिन जलवायु परिस्थितियों में जीवित रहने की क्षमता और छोटे पैमाने की खेती में आर्थिक उपयोगिता के लिए जानी जाती है।
गांव की यादें और बकरियों का महत्व
नारायणपटना ब्लॉक के तंगिनीपदारा गांव की निवासी लिम्ने बिंगोडिका (Limne Bingodika) बताती हैं, “मैं जब 8-9 साल की थी, तभी से मैंने अपने गांव में लोगों को नारायणपटना बकरियां पालते देखा है। ये बकरियां मजबूत और फुर्तीली होती हैं, और इन्हें बहुत कम बीमारी होती है।” लिम्ने अपने परिवार की आय बढ़ाने के लिए 10 नारायणपटना बकरियों का पालन करती हैं।
इसी गांव के छोटे किसान अभिनाश बिंगोडिका (Abhinash Bingodika) कहते हैं, “हम अपने दादा-परदादा की सलाह मानते हैं और सबसे स्वस्थ और मजबूत बकरे को प्रजनन के लिए चुनते हैं। प्रजनन के दौरान हम यह सुनिश्चित करते हैं कि इस नस्ल का अन्य नस्लों के साथ मिश्रण न हो।”
नारायणपटना बकरी की विशेषताएं
नारायणपटना बकरी एक गैर-वर्णित भारतीय देशी नस्ल है, जो मुख्य रूप से कोरापुट जिले के पहाड़ी इलाकों में पाई जाती है। इसका शरीर मजबूत और संकुचित होता है, जिसमें सीधी पीठ, चौड़ा सीना और मध्यम विकसित पिछले हिस्से होते हैं। नर बकरियां मादा की तुलना में बड़े और भारी होती हैं। नर में दाढ़ी और बड़े सींग होते हैं, जो इस नस्ल में यौन द्विरूपता (sexual dimorphism) को दर्शाते हैं।
इस बकरी की पहचान इसकी विविध रंगों वाली कोट से होती है, जिसमें सफेद रंग पर काले या भूरे धब्बे सबसे आम हैं। अन्य रंगों में शुद्ध सफेद, काला, भूरा और ग्रे शामिल हैं। दोनों लिंगों में छोटे से मध्यम लंबाई के सींग होते हैं, जो पीछे की ओर मुड़े होते हैं। इसके कान मध्यम आकार के, सपाट और लटकते हुए होते हैं, जो गर्मी को कम करने में मदद करते हैं।
सांस्कृतिक और आर्थिक महत्व
कोंध और परोजा जैसे आदिवासी समुदायों के लिए नारायणपटना बकरी केवल मांस और आय का स्रोत नहीं है, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा भी है। ये बकरियां शादी, त्योहारों और धार्मिक अनुष्ठानों में आदान-प्रदान की जाती हैं। बकरी बिक्री से होने वाली आय बारिश पर निर्भर खेती की विफलता या आपातकाल में आर्थिक सुरक्षा प्रदान करती है।
महिलाएं और बच्चे भी बकरी पालन में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं, जिससे यह एक लैंगिक-समावेशी उद्यम बनता है जो हाशिए पर रहने वाले समूहों को सशक्त बनाता है। ये बकरियां ज्यादातर जंगली इलाकों में स्वतंत्र रूप से चरती हैं और प्राकृतिक वनस्पति, झाड़ियों और फसल अवशेषों पर निर्भर रहती हैं।
कठिन परिस्थितियों में अनुकूलन
नारायणपटना ब्लॉक में उबड़-खाबड़ भूभाग, घने जंगल और उष्णकटिबंधीय मानसूनी जलवायु है, जिसमें गर्म गर्मियां, भारी बारिश और हल्की सर्दियां शामिल हैं। इस चुनौतीपूर्ण पर्यावरण ने नारायणपटना बकरी को एक कठोर और अनुकूलनीय पशु बनाया है, जो कम संसाधनों में भी जीवित रह सकती है। यह नस्ल कई सामान्य बीमारियों के प्रति प्रतिरोधी है और इसमें अंत: और बाह्य परजीवी (endo and ecto-parasitic) संक्रमण कम होता है, जिससे पशु चिकित्सा पर निर्भरता कम होती है।
प्रजनन और उत्पादन
नारायणपटना बकरी की प्रजनन क्षमता कम संसाधनों में भी अच्छी होती है। पहली ब्यांत (kidding) की औसत आयु 16-18 महीने होती है, और ब्यांत अंतराल 8-10 महीने का होता है। एकल जन्म अधिक आम हैं, हालांकि जुड़वां जन्म भी होते हैं। वयस्क नर का वजन 30-35 किलोग्राम और मादा का वजन 25-30 किलोग्राम होता है। एक साल की उम्र में इनका औसत वजन 12-15 किलोग्राम होता है, जो बाजार के लिए उपयुक्त है। मांस उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण ड्रेसिंग प्रतिशत (dressing percentage) अधिक होता है, जिससे स्थानीय बाजारों में अच्छा मुनाफा मिलता है।
संरक्षण के लिए प्रयास
हैदराबाद स्थित गैर-लाभकारी संगठन वाटरशेड सपोर्ट सर्विसेज एंड एक्टिविटीज नेटवर्क (WASSAN) ने ओडिशा यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर एंड टेक्नोलॉजी (OUAT) के साथ मिलकर देशी नस्लों की पहचान, विशेषता निर्धारण और पंजीकरण के लिए प्रशिक्षण प्रदान किया है। WASSAN के पशुधन विशेषज्ञों ने OUAT के प्रोफेसर और पशु आनुवंशिकी और प्रजनन विभाग के प्रमुख सुशांत कुमार दास (Sushant Kumar Dash) और नेशनल ब्यूरो ऑफ एनिमल जेनेटिक रिसोर्सेज के पूर्व वैज्ञानिक देवेंद्र कुमार सादाना (Devender Kumar Sadana) के मार्गदर्शन में डेटा विश्लेषण और नस्ल विवरण विकसित किए हैं।
खतरे और संरक्षण की जरूरत
नारायणपटना बकरी को अंधाधुंध क्रॉसब्रीडिंग, आवास क्षरण और वैज्ञानिक प्रजनन कार्यक्रमों की कमी जैसे खतरों का सामना करना पड़ रहा है। नस्ल संरक्षण के लिए दस्तावेजीकरण, चयनात्मक प्रजनन और ब्रीड सोसाइटी की स्थापना की तत्काल आवश्यकता है। संरक्षणवादियों ने इन-सीटू संरक्षण (in situ preservation) पर जोर दिया है, ताकि नस्ल अपने मूल निवास स्थान में विकसित होती रहे और सामुदायिक आनुवंशिक सुधार पहलों के माध्यम से इसकी उत्पादकता बढ़ाई जा सके।
इस नस्ल की अनुकूलन विशेषताओं और उत्पादन क्षमता पर और शोध से इसके सतत उपयोग के नए रास्ते खुल सकते हैं। बेहतर प्रबंधन प्रथाओं, स्वास्थ्य सेवाओं और मूल्य श्रृंखला (value chain) से जोड़ने से आदिवासी किसा