India’s food security : भारत, जिसकी जनसंख्या 145 करोड़ है, अपनी खाद्य और पोषण संबंधी आवश्यकताओं में आत्मनिर्भर है। पिछले 70 वर्षों में यह उपलब्धि कृषि क्षेत्र का विस्तार करने और हरित क्रांति के दौरान गहन कृषि पद्धतियों को अपनाने से हासिल हुई। हालांकि, हर साल 2-3 प्रतिशत की खाद्य मांग बढ़ने के साथ, 2050 तक भारत को 50 प्रतिशत अधिक खाद्य उत्पादन करने की आवश्यकता होगी।
चुनौतियाँ और मौजूदा कृषि पद्धतियों की सीमाएँ
- विशेषज्ञों का मानना है कि मौजूदा कृषि पद्धतियों के साथ भारत इस बढ़ती खाद्य मांग को पूरा करने में असफल हो सकता है।
- वर्तमान गहन कृषि प्रणाली अत्यधिक मात्रा में रासायनिक उर्वरकों पर निर्भर करती है, जिससे मिट्टी की उर्वरता में भारी गिरावट आई है।
- यह ऊर्जा-गहन और जीवाश्म ईंधन पर आधारित प्रणाली न केवल पर्यावरण को नुकसान पहुँचा रही है, बल्कि भारत की खाद्य, पोषण और पारिस्थितिक सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा बन गई है।
FAO की रिपोर्ट के मुख्य बिंदु
संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन (FAO) की State of the Food and Agriculture Report के अनुसार:
- वैश्विक कृषि और खाद्य प्रणालियों के कारण हर साल 12 ट्रिलियन डॉलर का सामाजिक, स्वास्थ्य और पर्यावरणीय नुकसान होता है।
- वर्तमान उत्पादन प्रणाली 8 अरब से अधिक लोगों की कैलोरी आवश्यकताओं को पूरा कर सकती है, लेकिन इसके साथ स्वास्थ्य, पर्यावरण और समाज पर भारी छिपी हुई लागत आती है।
- भारत की कृषि-खाद्य प्रणाली में भी इन लागतों का बड़ा हिस्सा शामिल है, जिसमें स्वास्थ्य, पर्यावरण और सामाजिक क्षति शामिल है।
मिट्टी की उर्वरता में गिरावट: एक गंभीर समस्या
- पिछले 60 वर्षों में रासायनिक उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग ने मिट्टी के कार्बनिक कार्बन (SOC) सामग्री को 1947 में 2.4 प्रतिशत से घटाकर 0.4 प्रतिशत कर दिया है।
- यह स्तर 1.5 प्रतिशत के आवश्यक मानक से काफी कम है, जो मिट्टी की उर्वरता बनाए रखने के लिए जरूरी है।
- मिट्टी की इस गिरावट से:
- खाद्य सुरक्षा पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है।
- भारत को पिछले 70 वर्षों में 47.7 लाख करोड़ रुपये (564 बिलियन डॉलर) का नुकसान हुआ है।
उर्वरक सब्सिडी और पर्यावरणीय लागत
- वर्तमान में, भारत सरकार हर साल 2 लाख करोड़ रुपये (25 बिलियन डॉलर) की सब्सिडी रासायनिक उर्वरक उद्योग को देती है।
- यह सब्सिडी न केवल बर्बादी को बढ़ावा देती है, बल्कि हर साल:
- 25 मिलियन टन ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन (CO2e) का कारण बनती है।
- 14,813 करोड़ रुपये (1.75 बिलियन डॉलर) की पर्यावरणीय लागत जोड़ती है।
- रासायनिक उर्वरकों का अत्यधिक उपयोग मिट्टी के जैविक कार्बन को घटाता है और खाद्य, पोषण और पारिस्थितिक सुरक्षा को खतरे में डालता है।
आगे का रास्ता: समाधान और संभावनाएँ
- जैविक और प्राकृतिक कृषि: रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता कम कर प्राकृतिक और टिकाऊ कृषि पद्धतियों को अपनाना।
- मिट्टी की गुणवत्ता का पुनर्स्थापन: मिट्टी के जैविक कार्बन स्तर को बढ़ाने के लिए योजनाएँ बनाना।
- टेक्नोलॉजी और नवाचार: स्मार्ट कृषि तकनीकों और डेटा-संचालित समाधानों को अपनाकर उत्पादन को बढ़ावा देना।
- नीतिगत सुधार: उर्वरक सब्सिडी में बदलाव और टिकाऊ कृषि के लिए प्रोत्साहन देना।
- सामाजिक जागरूकता: किसानों और आम जनता को टिकाऊ कृषि और इसके दीर्घकालिक लाभों के प्रति जागरूक करना।
अगर भारत इन कदमों को अपनाता है, तो यह न केवल अपनी खाद्य और पोषण आवश्यकताओं को पूरा कर सकता है, बल्कि पर्यावरण और मिट्टी की उर्वरता को भी बनाए रख सकता है।