एक नई रिपोर्ट के अनुसार, टिकाऊ विकास की दिशा में ठोस कदम न उठाने की वजह से मानव जाति अभूतपूर्व तापमान वृद्धि और इससे जुड़े खतरों का सामना कर सकती है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि 2040 तक लगभग दो अरब लोग, जो शहरी इलाकों में रहते हैं, 0.5 डिग्री सेल्सियस की तापमान वृद्धि का सामना करेंगे।
शहरों पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव संयुक्त राष्ट्र हबिटैट की कार्यकारी निदेशक ने कहा, “लगभग हर शहरी निवासी पर जलवायु परिवर्तन का असर होगा, जिससे अरबों लोग बढ़ते तापमान, बाढ़ और अन्य खतरों का सामना करेंगे।” रिपोर्ट का शीर्षक “वर्ल्ड सिटीज रिपोर्ट 2024: सिटीज एंड क्लाइमेट एक्शन” है, और इसमें यह बताया गया है कि शहर न केवल जलवायु परिवर्तन का शिकार हैं, बल्कि इसके मुख्य कारणों में से भी एक हैं। शहरों में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव अधिक महसूस किए जा रहे हैं और ये वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में भी बड़ा योगदान करते हैं।
मौसम का बदलता मिजाज बढ़ता तापमान केवल एकमात्र समस्या नहीं है; यह अनियमित मौसम, जैसे अत्यधिक वर्षा, बाढ़, और चक्रवात जैसी समस्याओं को भी जन्म देता है। रिपोर्ट में बताया गया कि बड़े महानगरों में लाखों लोग और अरबों डॉलर की संपत्ति जलवायु परिवर्तन से प्रभावित क्षेत्रों में स्थित है, जिससे हर साल उनका जोखिम बढ़ता जा रहा है। जैसे-जैसे ये शहर बढ़ते हैं, वैसे-वैसे उनके सामने आने वाले खतरे भी बढ़ते हैं, जिससे भविष्य में संभावित आपदाओं की संभावना बढ़ रही है।
जलवायु-प्रभावी प्रणाली के लिए फंड की कमी रिपोर्ट में अनुमान है कि दुनियाभर के शहरों को जलवायु प्रभावों का सामना करने के लिए हर साल करीब $4.5 से $5.4 ट्रिलियन का निवेश चाहिए, जबकि मौजूदा फंडिंग सिर्फ $831 बिलियन है, जो कि जरूरत के मुकाबले बहुत कम है। यूएन-हबिटैट की प्रमुख अनाक्लौडिया रॉसबैक ने बताया कि जो लोग सबसे अधिक जोखिम में हैं, वही लोग पहले से ही कई सामाजिक और आर्थिक असमानताओं का सामना कर रहे हैं।
असुरक्षित क्षेत्र और अनौपचारिक बस्तियाँ ज्यादा प्रभावित रिपोर्ट में कहा गया कि अनौपचारिक बस्तियाँ और झुग्गी-झोपड़ी वाले क्षेत्र, जो पर्यावरणीय रूप से संवेदनशील स्थानों पर स्थित हैं, जलवायु आपदाओं का सबसे अधिक शिकार होते हैं क्योंकि इनमें संरक्षित ढाँचे की कमी होती है। इन बस्तियों में रहने वाले लोग, जिनके पास जलवायु परिवर्तन से बचने के लिए मजबूत साधन नहीं होते, अक्सर इन आपदाओं का सबसे अधिक नुकसान झेलते हैं।
हरी जगहों की घटती संख्या रिपोर्ट ने यह भी बताया कि शहरों में तेजी से बढ़ती आबादी के कारण हरे-भरे स्थानों में कमी आ रही है। 1990 में शहरी इलाकों में हरे क्षेत्र का औसत हिस्सा 19.5 प्रतिशत था, जो 2020 में घटकर 13.9 प्रतिशत रह गया है।
‘ग्रीन जेंट्रिफिकेशन’ की समस्या रिपोर्ट ने एक और समस्या का जिक्र किया, जिसे ‘ग्रीन जेंट्रिफिकेशन’ कहा गया है। यह तब होता है जब पर्यावरण सुधार की नीतियाँ, जैसे कि पार्कों का निर्माण, गरीब तबके के लोगों को उनके इलाकों से बाहर कर देती हैं या संपत्ति की कीमतें बढ़ा देती हैं, जिससे उनके लिए वहाँ रहना मुश्किल हो जाता है।
निष्कर्ष
रिपोर्ट से यह स्पष्ट होता है कि जलवायु परिवर्तन के असर से बचने के लिए शहरों में बड़े पैमाने पर निवेश और टिकाऊ योजनाओं की जरूरत है। साथ ही, नीतियों का ऐसा क्रियान्वयन होना चाहिए जिससे गरीब तबके के लोग इन प्रभावों से बच सकें और उनके जीवन पर सकारात्मक असर पड़े।