ब्रिटेन के डरहम विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों की नई रिसर्च ने चेतावनी दी है कि ग्रीनहाउस गैसों के बढ़ते उत्सर्जन के कारण इस सदी के अंत तक मध्य हिमालय क्षेत्र में आने वाली भीषण बाढ़ों का आकार 84 फीसदी तक बढ़ सकता है। यह अध्ययन नेपाल-चीन में बहने वाली कर्णाली नदी (भारत में घाघरा) पर केंद्रित है, जो तिब्बत के मापचाचुंगो ग्लेशियर से निकलकर भारतीय तराई क्षेत्रों को प्रभावित करती है और अंत में गंगा में मिल जाती है।
अध्ययन के अनुसार, जिन चरम बाढ़ों के किसी भी साल आने की संभावना महज 1% होती है, उनका आकार 2020-2059 के बीच 22-26% और यदि उत्सर्जन मध्यम स्तर पर रहा तो 2060-2099 के बीच 43% तक बढ़ सकता है। सबसे खराब परिदृश्य (उत्सर्जन में तेज वृद्धि) में यह वृद्धि 84% तक पहुंच सकती है। ये आंकड़े 1975-2014 के बीच दर्ज historic बाढ़ों से तुलना पर आधारित हैं।
शोध में पाया गया कि बाढ़ बढ़ने का मुख्य कारण बारिश की तीव्रता में वृद्धि होगा, जबकि ग्लेशियर पिघलने की भूमिका अपेक्षाकृत कम रहेगी। नतीजे अंतरराष्ट्रीय जर्नल Scientific Reports में प्रकाशित हुए हैं।
मध्य हिमालय की घाटियां पहले से ही दुनिया की सबसे अधिक बाढ़-प्रभावित जगहों में शुमार हैं। सितंबर 2024 की बाढ़ ने अकेले नेपाल में 236 लोगों की जान ली, 8,400 लोग बेघर हुए और देश के GDP को 1% नुकसान हुआ। अनुमान है कि 2050 तक बाढ़ से सालाना नुकसान नेपाल के GDP का 2.2% तक पहुंच सकता है।
डरहम यूनिवर्सिटी के प्रमुख शोधकर्ता डॉ. इवो पिंक ने कहा, “यह क्षेत्र पहले से ही अति संवेदनशील है। बढ़ते उत्सर्जन के साथ चरम बाढ़ और विकराल होती जाएंगी। सदी के अंत तक ऐसी घटनाएं हर ५-१० साल में एक बार आ सकती हैं। भले आज उत्सर्जन रोक भी दिया जाए, खतरा दशकों तक बना रहेगा।”
वैज्ञानिकों का स्पष्ट संदेश है – जलवायु परिवर्तन अब भविष्य का नहीं, वर्तमान की कड़वी सच्चाई है। भारत-नेपाल के लाखों लोगों की जान-माल बचाने के लिए वैश्विक स्तर पर ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में तत्काल और भारी कटौती ही एकमात्र रास्ता है।
