केंद्र सरकार ने आगामी वर्षों में देश की प्रमुख खरीफ फसल धान के रकबे को 50 लाख हेक्टेयर तक कम करने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है। इस कदम का उद्देश्य दलहन और तिलहन फसलों को बढ़ावा देना है।
हालांकि, किसानों और व्यापारियों ने चिंता जताई है कि यदि किसानों को सुरक्षित बीज, आधुनिक खेती का समर्थन और प्रशिक्षण नहीं मिला, तो न केवल धान का उत्पादन प्रभावित होगा, बल्कि दलहन और तिलहन की पैदावार भी कम हो सकती है।
हाल ही में, जीनोम एडिटिंग तकनीक से विकसित धान की दो नई किस्में—डीआरआर धान 100 (कमला) और पूसा डीएसटी राइस 1—लॉन्च की गईं। इस मौके पर केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि 2024-25 फसल वर्ष (जुलाई-जून) में चावल की खेती का रकबा 4.783 करोड़ हेक्टेयर से घटकर 4.773 करोड़ हेक्टेयर रह जाएगा।
इसके बावजूद, उत्पादन 12.786 करोड़ टन से बढ़कर 13.584 करोड़ टन होने का अनुमान है। यह वृद्धि मुख्य रूप से जीनोम-एडिटेड चावल की नई किस्मों के जरिए हासिल की जाएगी।
जीनोम एडिटिंग: नई तकनीक, नई उम्मीदें
कृषि मंत्रालय के अनुसार, नई किस्में सीआरआईएसपीआर-कैस तकनीक (एसडीएन1 और एसडीएन2 विधियों) का उपयोग करके विकसित की गई हैं। इस तकनीक में पौधे के मूल जीन में सूक्ष्म बदलाव किए जाते हैं, बिना किसी बाहरी जीन को शामिल किए।
ये किस्में भारत सरकार के बायो-सिक्योरिटी नियमों से मुक्त हैं और इन्हें जेनेटिकली मॉडिफाइड (जीएम) फसलों की श्रेणी में नहीं रखा जाता। इन किस्मों को पानी की बचत करने और जलवायु अनुकूल होने का दावा किया गया है, जिससे सीमित रकबे में अधिक उपज संभव होगी।
केंद्रीय कृषि मंत्री ने इस दौरान ‘माइनस 5, प्लस 10’ का फॉर्मूला भी पेश किया। इसके तहत धान के रकबे को 50 लाख हेक्टेयर कम करने के साथ-साथ 100 लाख टन से अधिक अतिरिक्त उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। जो रकबा धान से कम होगा, उसका उपयोग दलहन और तिलहन की खेती के लिए किया जाएगा। मंत्रालय ने बताया कि दलहन और तिलहन फसलों के लिए भी जीनोम एडिटिंग पर काम चल रहा है।
वैज्ञानिकों और किसानों की चिंताएं
हालांकि, वैज्ञानिकों ने जीनोम एडिटिंग की जैव-सुरक्षा (बायोसेफ्टी) को लेकर चिंता जताई है। उनका कहना है कि सीआरआईएसपीआर-कैस तकनीक अभी पूरी तरह अनुकूलित नहीं है। यह तकनीक ‘कैस’ एंजाइम का उपयोग करती है, जो डीएनए के विशिष्ट हिस्से को काटकर बदलाव करता है। वैज्ञानिकों के अनुसार, इससे अनचाही जेनेटिक गड़बड़ियां हो सकती हैं, जिसके दीर्घकालिक प्रभावों का आकलन जरूरी है।
कॉन्फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स (कैट) के शंकर ठक्कर ने ‘डाउन टू अर्थ’ से बातचीत में कहा, “किसानों को पहले प्रशिक्षित करना जरूरी है। बिना प्रशिक्षण के चावल की उपलब्धता कम हो सकती है और कीमतें बढ़ सकती हैं।”
उन्होंने सुझाव दिया कि किसानों को आधुनिक खेती के तौर-तरीके सिखाए जाएं, मिट्टी की जांच की जाए और उन्हें उन्नत बीजों की जानकारी दी जाए। ठक्कर ने चेतावनी दी कि यदि ये कदम नहीं उठाए गए, तो दलहन और तिलहन के उत्पादन बढ़ाने की कोशिश में चावल की फसल को नुकसान हो सकता है।
आगे की राह
केंद्र सरकार का यह कदम खाद्य सुरक्षा और आत्मनिर्भरता की दिशा में महत्वपूर्ण हो सकता है, बशर्ते किसानों को पर्याप्त संसाधन, प्रशिक्षण और समर्थन मिले। विशेषज्ञों का मानना है कि जीनोम एडिटिंग तकनीक में संभावनाएं तो हैं, लेकिन इसके जोखिमों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
सरकार को चाहिए कि वह किसानों और वैज्ञानिकों की चिंताओं को दूर करने के लिए ठोस कदम उठाए, ताकि धान, दलहन और तिलहन की खेती में संतुलन बना रहे।