प्रयागराज महाकुंभ 2025 : एक बार फिर भारत की संस्कृति और आस्था का सबसे बड़ा आयोजन बनने जा रहा है। 13 जनवरी से 26 फरवरी तक चलने वाले इस महापर्व में करोड़ों श्रद्धालु संगम में स्नान कर अपनी श्रद्धा व्यक्त करेंगे। लेकिन, क्या कभी हमने सोचा है कि इस आस्था का हमारी नदियों और पर्यावरण पर क्या असर पड़ता है?
गंगा: अस्तित्व की लड़ाई लड़ती नदी
गंगा, जो हमारे धर्म और संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है, आज दुनिया की सबसे प्रदूषित नदियों में से एक बन चुकी है। सवाल यह है कि अगर गंगा ही नहीं बची, तो भविष्य में कुंभ स्नान कहां होगा?
महाकुंभ में 45 दिनों के आयोजन के दौरान लगभग 25 करोड़ लोगों के संगम स्नान का अनुमान है। सिर्फ पहले शाही स्नान (13 जनवरी) पर ही करीब 3.5 करोड़ लोग डुबकी लगाएंगे। यह संख्या जर्मनी, फ्रांस, और यूनाइटेड किंगडम जैसे देशों की कुल आबादी से भी ज्यादा है।
नदियों पर महाकुंभ का असर
- पानी की गुणवत्ता पर प्रभाव:
संगम में गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती का मिलन होता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या इन नदियों की “कैरीइंग कैपेसिटी” इतनी बड़ी भीड़ को संभालने में सक्षम है?
वैज्ञानिक बताते हैं कि इतने बड़े पैमाने पर स्नान से नदियों में रासायनिक, जैविक और ठोस कचरे की मात्रा बढ़ जाती है। - प्रदूषण का स्तर:
पूजा सामग्री, फूल, कपड़े, प्लास्टिक और अन्य कचरा नदियों के संतुलन को गंभीर रूप से प्रभावित करता है। इसके अलावा, हवन, यज्ञ और गंगा महाआरती जैसे आयोजनों से ध्वनि प्रदूषण और रासायनिक प्रभाव भी बढ़ता है। - जलीय जीवन पर प्रभाव:
नदी में मौजूद जलीय जीव-जंतु ध्वनि और जल प्रदूषण से बुरी तरह प्रभावित होते हैं। यह उनके अस्तित्व के लिए खतरा बन सकता है।
सरकारी चुप्पी और निगरानी का अभाव
चौंकाने वाली बात यह है कि इतने बड़े आयोजन के दौरान नदी की गुणवत्ता पर केंद्रीय और राज्य पर्यावरण एजेंसियों की ओर से कोई ठोस निगरानी नहीं हो रही। धार्मिक और राजनीतिक दबाव के कारण पर्यावरण की अनदेखी साफ झलकती है।
हमारी जिम्मेदारी
अगर आप महाकुंभ में जाने की योजना बना रहे हैं, तो नदियों की स्वच्छता बनाए रखना आपकी प्राथमिकता होनी चाहिए।
- कचरा न फैलाएं: पूजा सामग्री और प्लास्टिक को नदियों में न फेंकें।
- साफ-सफाई का ध्यान रखें: संगम किनारे स्वच्छता बनाए रखें।
- जागरूकता फैलाएं: दूसरों को भी नदियों की स्वच्छता का महत्व समझाएं।
आस्था और पर्यावरण का संतुलन
महाकुंभ सिर्फ आस्था का पर्व नहीं है, यह हमारी नदियों के अस्तित्व की परीक्षा भी है। हमें समझना होगा कि पवित्रता सिर्फ जल में नहीं, बल्कि हमारी सोच और कर्मों में भी होनी चाहिए।
सार
महाकुंभ 2025 हमारी संस्कृति का पर्व है, लेकिन यह नदियों के संरक्षण का भी समय है। अगर हम अभी नहीं संभले, तो भविष्य में हमारी नदियां और उनका धार्मिक महत्व खतरे में पड़ सकता है। आइए, मिलकर इस महापर्व को पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी के साथ मनाएं।
“गंगा हमारी आस्था है, लेकिन उसे बचाना हमारी जिम्मेदारी है।”