नवंबर के आखिरी हफ्ते में जहां जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश को बर्फबारी से राहत मिली, वहीं उत्तराखंड के पहाड़ अब भी बारिश और बर्फ का इंतजार कर रहे हैं। इस बारिश की कमी ने पहाड़ों की खेती, पर्यावरण, और वहां के लोगों की जिंदगी पर गहरा असर डाला है।
खेती पर प्रभाव
उत्तराखंड की 80% खेती असिंचित है, यानी ये पूरी तरह से बारिश पर निर्भर करती है। टिहरी के प्रगतिशील किसान विजय जड़धारी बताते हैं कि बारिश न होने से गेहूं, जौ, और मसूर जैसी फसलें किसान बो नहीं पाए। उनके अनुसार, “पहले ऐसा कभी नहीं होता था। बुवाई के समय बारिश जरूर होती थी, जिससे फसलें अच्छी होती थीं। लेकिन अब खेत बंजर पड़े हैं, और किसान मुश्किलों का सामना कर रहे हैं।”
क्या कहते हैं आंकड़े?
- उत्तराखंड में 1 अक्टूबर से 24 नवंबर के बीच सामान्य से 90% कम बारिश हुई।
- पिथौरागढ़ और बागेश्वर को छोड़कर बाकी 11 जिलों में सूखे जैसी स्थिति है।
- हिमाचल प्रदेश में भी स्थिति खराब है। इस साल अक्टूबर महीना पिछले 123 वर्षों में तीसरा सबसे सूखा रहा।
खेती पर इस सूखे का सबसे बड़ा प्रभाव छोटे किसानों पर पड़ रहा है। राज्य के पहाड़ी इलाकों में अधिकतर किसान छोटे पैमाने पर खेती करते हैं। बारिश की कमी का मतलब है कि उनकी आजीविका पर सीधा असर पड़ रहा है।
जल स्रोत और बागवानी पर प्रभाव
उत्तराखंड में सिंचित खेती केवल मैदानी इलाकों तक सीमित है। पहाड़ी इलाकों में जल स्रोत पूरी तरह बारिश पर निर्भर हैं। अगर बारिश नहीं होती है, तो नदियों का जलस्तर गिर जाएगा, जिससे सिंचाई और पीने के पानी की कमी होगी।
बागवानी पर संकट
बारिश की कमी का असर केवल खेती तक सीमित नहीं है। बागवानी भी इससे प्रभावित हो रही है। बारिश न होने से पेड़ों में फूल नहीं खिलते, जिससे फलों की उपज कम हो जाती है।
पश्चिमी विक्षोभ और जलवायु परिवर्तन
उत्तर भारत और हिमालयी क्षेत्रों में सर्दियों की बारिश और बर्फबारी का मुख्य स्रोत पश्चिमी विक्षोभ होता है। ये ठंडी हवाएं भूमध्य सागर और उससे सटे क्षेत्रों से आती हैं और हिंदुकुश पर्वतमाला से टकराकर बारिश और बर्फ लाती हैं।
पश्चिमी विक्षोभ में बदलाव
- पिछले कुछ वर्षों में पश्चिमी विक्षोभ में बदलाव देखा गया है।
- अब ये गर्मियों में अधिक सक्रिय हो रहे हैं, जबकि सर्दियों में इनका प्रभाव कम हो गया है।
- वैश्विक तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन को इसका प्रमुख कारण माना जा रहा है।
- एक अध्ययन के अनुसार, पिछले 20 वर्षों में जून महीने में पश्चिमी विक्षोभ की घटनाओं की संख्या पिछले 50 वर्षों की तुलना में दोगुनी हो गई है।
पर्यावरण और स्वास्थ्य पर प्रभाव
पर्यावरण पर असर
- ग्लेशियरों पर खतरा: बर्फबारी की कमी से हिमालय के ग्लेशियरों की बर्फ परत नहीं बन पाती, जिससे वे तेजी से पिघलते हैं। इससे जल संकट और बाढ़ जैसी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं।
- जैव विविधता पर प्रभाव: नमी की कमी से जंगलों में पेड़-पौधे सूख सकते हैं, जिससे वन्यजीवों का प्राकृतिक आवास प्रभावित होता है।
- गर्मी का बढ़ना: बारिश की कमी से गर्मियों में तापमान और अधिक बढ़ सकता है, जिससे पर्यावरण असंतुलित हो सकता है।
स्वास्थ्य पर असर
- पेयजल की कमी: बारिश कम होने से पानी की कमी होगी, जिससे लोग अशुद्ध जल का उपयोग करने पर मजबूर हो सकते हैं। यह पानी जनित बीमारियों जैसे डायरिया, हैजा, और टाइफाइड का कारण बन सकता है।
- वायु प्रदूषण: कम नमी और सूखे की स्थिति में हवा में धूल और प्रदूषण कणों की मात्रा बढ़ जाती है, जो श्वसन तंत्र के लिए खतरनाक है।
- पोषण पर असर: फसलों की कमी से कुपोषण और भुखमरी की स्थिति पैदा हो सकती है, खासकर गरीब वर्ग के बीच।
सरकार और समाज के लिए चुनौतियां
- किसानों को समर्थन: छोटे किसानों को सूखे से बचाने के लिए सिंचाई सुविधाओं में सुधार और आर्थिक सहायता प्रदान करनी होगी।
- जलवायु अनुकूल नीतियां: जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के लिए सतत विकास और हरित ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा देना होगा।
- जल प्रबंधन: बारिश के पानी को संग्रह करने और जल स्रोतों को संरक्षित करने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे।
निष्कर्ष
उत्तराखंड और हिमालयी क्षेत्रों में बारिश की कमी एक गंभीर समस्या है, जो खेती, पर्यावरण, और मानव जीवन पर नकारात्मक प्रभाव डाल रही है। इसे हल करने के लिए हमें जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को समझना और उसके अनुकूल कदम उठाना होगा। साथ ही, किसानों और ग्रामीण क्षेत्रों को राहत देने के लिए दीर्घकालिक योजनाएं बनानी होंगी।