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क्या आपके दूध का रंग लाल है: आपकी मदद से चल रहा डेरी उद्योग, भारत के मांस उद्योग का मूल आधार!

by kishanchaubey
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Meat Export India : क्या आपने कभी सोचा है कि जिस दूध को आप अपनी चाय, कॉफी या सुबह के नाश्ते में इस्तेमाल करते हैं, उसका सीधा रिश्ता भारत के मांस निर्यात से हो सकता है? सुनने में अजीब लगता है, लेकिन इसके पीछे कई गहरे और कड़वे सच छिपे हुए हैं।

भारत का डेयरी उद्योग: एक झलक

भारत, दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश है। 2019 की पशुधन गणना के अनुसार, भारत में दूध देने वाले पशुओं की संख्या 30 करोड़ से ज्यादा है। इनमें से लगभग 60% दूध भैंसों से और बाकी 40% गाय, बकरी और अन्य जानवरों से आता है। लेकिन क्या आपने सोचा है कि जब ये जानवर दूध देना बंद कर देते हैं, तो उनका क्या होता है?

दूध और जानवरों की जिंदगी का गणित

एक गाय या भैंस औसतन 20 साल तक जीवित रहती है, लेकिन वह केवल अपनी जिंदगी के पहले 10 साल तक ही दूध देती है। इसका मतलब यह है कि बाकी की जिंदगी में वह “अउपयोगी” मानी जाती है। खासकर नर पशु (जैसे बैल और भैंसे) जो दूध नहीं दे सकते, उनका पालन कौन करता है?

पहले गांवों में बैल और भैंसे खेतों में काम करते थे, लेकिन अब मशीनों और ट्रैक्टरों के चलते उनकी जरूरत खत्म हो गई है। तो ऐसे में सवाल उठता है कि ये लाखों जानवर कहां जा रहे हैं?

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डेयरी उद्योग और मांस निर्यात का कनेक्शन

भारत का मांस निर्यात पिछले कुछ सालों में तेजी से बढ़ा है। 2016 में भारत ने लगभग 10 लाख टन मांस का निर्यात किया था, जो 2023-24 में बढ़कर 28 लाख टन हो गया। इन आंकड़ों से यह स्पष्ट होता है कि “अउपयोगी” माने जाने वाले जानवरों को मांस उद्योग में धकेला जा रहा है।

यह रिश्ता साफ है:

  1. दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए गायों और भैंसों को बार-बार प्रजनन चक्र में डाला जाता है।
  2. जब वे दूध देना बंद कर देती हैं, तो उनके लिए कोई जगह नहीं बचती।
  3. सरकारी या निजी गौशालाएं इन जानवरों की केवल 2% आबादी को ही आश्रय दे पाती हैं।
  4. बाकी जानवरों को “अउपयोगी” मानकर मांस उद्योग को बेच दिया जाता है।

पर्यावरण और नैतिक सवाल

डेयरी और मांस उद्योग का यह चक्र न केवल पशुओं के प्रति क्रूरता को बढ़ावा देता है, बल्कि पर्यावरण के लिए भी हानिकारक है। मांस उत्पादन से निकलने वाली ग्रीनहाउस गैसें जलवायु परिवर्तन का बड़ा कारण बन रही हैं।

जब भी हम दूध या उससे बने उत्पादों का उपयोग करते हैं, तो हमें यह सोचना चाहिए कि इसके पीछे का सच क्या है। क्या वह दूध वाकई “सफेद” और “शुद्ध” है, या उसमें छिपा है लाल रंग?

बदलाव की जरूरत

अब समय आ गया है कि हम अपने खाने-पीने के चुनावों को लेकर जागरूक हों। यह न केवल हमारे स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए बेहतर है, बल्कि यह पशुओं के प्रति हमारी नैतिक जिम्मेदारी को भी दर्शाता है।

  • पौधे आधारित विकल्प (Plant-based alternatives) जैसे सोया, बादाम या ओट मिल्क का इस्तेमाल करें।
  • डेयरी उद्योग के पीछे छिपे सच को समझें और दूसरों को भी जागरूक करें।
  • अपने उपभोग को सीमित करें और सही विकल्प चुनें।

सोचिए और बदलाव की शुरुआत कीजिए

अगली बार जब आप दूध का गिलास उठाएं या चाय पिएं, तो इन सवालों पर जरूर विचार करें। क्या आप ऐसे उद्योग का समर्थन करना चाहते हैं, जो जानवरों और पर्यावरण दोनों को नुकसान पहुंचा रहा है?

अगर यह जानकारी आपको सोचने पर मजबूर कर सके, तो इसे दूसरों के साथ शेयर करें। जागरूकता फैलाएं और अपने जीवन में छोटे-छोटे बदलाव लाकर बड़ा फर्क पैदा करें।
“सोच बदलिए, दुनिया बदलिए।”

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