environmentalstory

Home » जलवायु संकट के बीच कृषि जैव विविधता और भूले-बिसरे खाद्य पदार्थों का महत्व

जलवायु संकट के बीच कृषि जैव विविधता और भूले-बिसरे खाद्य पदार्थों का महत्व

by kishanchaubey
0 comment

IPCC की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार, मानव गतिविधियों के कारण वैश्विक तापमान में 1.1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है, जिससे धरती की जलवायु में बड़े बदलाव हो रहे हैं। जलवायु परिवर्तन का सीधा असर कृषि पर पड़ रहा है और इससे खाद्य सुरक्षा पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है। मिट्टी की घटती उर्वरता और जैविक तत्वों की कमी से यह समस्या और गहरी हो गई है। ऐसे में कृषि जैव विविधता, यानी फसलों और खाद्य पदार्थों की विविधता को बढ़ावा देने से इस संकट से निपटा जा सकता है।

कृषि जैव विविधता का महत्व FAO के अनुसार, दुनियाभर में इंसानों द्वारा खपत किए जाने वाले 75% खाद्य पदार्थ सिर्फ 12 पौधों और 5 पशु स्रोतों से आते हैं। गेहूं, चावल और मक्का जैसे तीन फसलें ही दुनियाभर के भोजन में 51% कैलोरी की पूर्ति करती हैं। इन फसलों पर निर्भरता के कारण जलवायु परिवर्तन और कीटों के प्रकोप से खाद्य सुरक्षा को हमेशा खतरा बना रहता है।

भारत के भूले-बिसरे खाद्य पदार्थ और फसलें FAO का अनुमान है कि दुनियाभर में 30,000 से अधिक खाद्य पौधे हैं, जिनमें से 6,000 से अधिक का मानव खपत में उपयोग होता है। भारत में 9,000 से अधिक पौधों की प्रजातियाँ दर्ज हैं, जिनका पिछले 4,000 वर्षों से सेवन किया जा रहा है। सिर्फ चावल में ही भारत के किसानों ने 40,000 से अधिक प्रकार विकसित किए हैं।

ओडिशा का कृषि जैव विविधता धरोहर ओडिशा राज्य कृषि जैव विविधता और खाद्य सुरक्षा के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। कोरापुट क्षेत्र को वैश्विक महत्वपूर्ण कृषि धरोहर प्रणाली (GIAHS) के रूप में मान्यता मिली है। गंधमर्दन पहाड़, महेंद्रगिरि पहाड़ और सिमिलिपाल पर्वत श्रृंखला जैसी अन्य जगहों पर विविध प्रकार की फसलें पाई जाती हैं।

banner

ओडिशा में रहने वाले 64 जनजातीय समुदायों की सांस्कृतिक और खाद्य विविधता अमूल्य है। इन समुदायों के पास कृषि, औषधीय पौधों और भूले-बिसरे खाद्य पदार्थों का विशाल ज्ञान है। हालांकि, इस परंपरागत ज्ञान का उचित दस्तावेजीकरण न होने के कारण इनकी विविधता खतरे में है।

भूले-बिसरे खाद्य पदार्थों को बढ़ावा देने का प्रयास ओडिशा राज्य ने ‘श्री अन्न अभियान’ और ‘एकीकृत कृषि प्रणाली कार्यक्रम’ के तहत 500 से अधिक गांवों में पारंपरिक फसलों का दस्तावेजीकरण किया है। इससे पता चला कि कई स्थानीय किस्में न केवल पोषक तत्वों में बेहतर हैं बल्कि स्थानीय पर्यावरण में अच्छी पैदावार भी देती हैं। ओडिशा देश का पहला राज्य है जिसने पारंपरिक फसलों को बीज प्रणाली के माध्यम से बढ़ावा देने के लिए SOPs जारी की हैं।

भविष्य की दिशा भूले-बिसरे खाद्य पदार्थों को आम जनता तक पहुँचाने के लिए बीज वितरण प्रणाली को मजबूत करना आवश्यक है। जलवायु संकट के बीच, इन पौष्टिक और कम उपयोग में आने वाली फसलों को मुख्यधारा में शामिल करने की जरूरत है। इसके लिए स्थानीय किसानों और जनजातीय समुदायों को शामिल करते हुए वैश्विक, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता है।

COP29 जैसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इन पौष्टिक खाद्य पदार्थों को खाद्य और कृषि नीतियों में उचित स्थान देने की मांग होनी चाहिए, जिससे जलवायु संकट के बीच खाद्य सुरक्षा को मजबूत किया जा सके।

You may also like