भारत में महिलाएँ कृषि क्षेत्र में लगभग 63% श्रमशक्ति का योगदान देती हैं, लेकिन उनके पास भूमि स्वामित्व, वित्तीय सहायता और आधुनिक कृषि तकनीकों तक सीमित पहुँच होती है। इस संदर्भ में “कृषि का नारीकरण” (Feminisation of Agriculture) का क्या अर्थ है? क्या कृषि में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी उन्हें सशक्त बना रही है, या यह भूमि अधिकार और निर्णय लेने की शक्ति में लैंगिक असमानता को और बढ़ा रही है?
भारत में महिला श्रमशक्ति भागीदारी दर (FLPR) में उतार-चढ़ाव
भारत में महिला श्रमशक्ति भागीदारी दर (FLPR) 2004-05 में 40.8% के उच्चतम स्तर पर थी, लेकिन इसके बाद इसमें गिरावट देखी गई। हालांकि, 2017 के बाद इसमें दोबारा वृद्धि दर्ज की गई, विशेषकर कोविड-19 महामारी के बाद।
- ग्रामीण महिला श्रमशक्ति भागीदारी दर: 2022-23 में 41.5% से बढ़कर 2023-24 में 47.6% हो गई।
- शहरी महिला श्रमशक्ति भागीदारी दर: 2022-23 में 25.4% से बढ़कर 2023-24 में 28% हो गई।
इस वृद्धि के पीछे कई कारण हैं। कोविड-19 के बाद आर्थिक सुधार ने कई महिलाओं को रोज़गार की तलाश में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। इसके अलावा, आर्थिक संकट ने भी महिलाओं को वैकल्पिक आय स्रोतों की ओर धकेला।
कृषि का नारीकरण: क्या है इसका अर्थ?
आर्थिक साहित्य में कृषि के नारीकरण को दो तरीकों से समझा जाता है:
- कृषि कार्यों में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी, जैसे कि छोटे किसान के रूप में कार्य करना या खेतिहर मजदूर के रूप में श्रम देना।
- महिलाओं की कृषि संसाधनों और सामाजिक प्रक्रियाओं में भागीदारी, जैसे भूमि स्वामित्व, फसल चयन और उर्वरकों के उपयोग पर निर्णय लेने की शक्ति।
भारत में संरचनात्मक आर्थिक बदलाव के कारण कृषि का सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में हिस्सा घटा है और सेवा क्षेत्र की ओर स्थानांतरण हुआ है। इसके साथ ही, ग्रामीण संकट ने पुरुषों को गैर-कृषि क्षेत्रों में आजीविका की तलाश में प्रवास करने के लिए मजबूर किया है।
पुरुषों के पलायन से महिलाओं की कृषि में बढ़ती जिम्मेदारी
कई कारकों ने पुरुषों को कृषि छोड़ने और अन्य क्षेत्रों में जाने के लिए प्रेरित किया है:
- कृषि उत्पादन और उत्पादकता में गिरावट
- कृषि इनपुट लागत में वृद्धि
- जलवायु परिवर्तन के कारण फसल को अधिक नुकसान
- गैर-कृषि रोजगार के अवसरों की कमी
- ग्रामीण युवाओं की बढ़ती आकांक्षाएँ
इस प्रवृत्ति के कारण महिलाएँ खेतों में अधिक जिम्मेदारी लेने लगी हैं, जिससे कृषि का नारीकरण हो रहा है।
भारत में महिलाओं के भूमि स्वामित्व में असमानता
राष्ट्रीय किसान आयोग (2005) की रिपोर्ट के अनुसार, महिलाओं की कृषि कार्यों में भागीदारी बढ़ रही है। भारत में लगभग 80% कृषि कार्यों को महिलाएँ करती हैं और वे 42% कृषि श्रमशक्ति का हिस्सा हैं। PLFS 2023-24 के अनुसार, 76.95% ग्रामीण महिलाएँ कृषि कार्यों में संलग्न हैं।
इसके बावजूद, महिला किसानों की पहचान और अधिकार सीमित हैं। कृषि जनगणना 2015-16 के अनुसार:
- 73% ग्रामीण महिला श्रमिक कृषि कार्यों में लगी हैं, लेकिन
- सिर्फ 11.72% कृषि भूमि महिलाओं के प्रबंधन में है।
इससे स्पष्ट होता है कि भूमि स्वामित्व और नियंत्रण में गंभीर लिंग असमानता बनी हुई है। महिलाओं की अधिकतर भूमि जोत छोटी और सीमांत होती हैं, जो असमान भूमि वितरण के कारण उत्पन्न हुई है।
महिलाओं को भूमि अधिकार मिलने में बाधाएँ
भारत में महिलाएँ भूमि का स्वामित्व विभिन्न तरीकों से प्राप्त कर सकती हैं:
- उत्तराधिकार (Inheritance)
- उपहार (Gift)
- खरीद (Purchase)
- सरकारी हस्तांतरण (Government Transfers)
हालांकि, इन व्यवस्थाओं में लैंगिक भेदभाव स्पष्ट रूप से देखा जाता है। महिलाएँ अक्सर वित्तीय संसाधनों की कमी के कारण भूमि खरीदने में असमर्थ रहती हैं, जिससे उत्तराधिकार उनके लिए भूमि प्राप्त करने का मुख्य साधन बन जाता है। लेकिन सामाजिक और पारिवारिक दबाव के कारण महिलाओं को भूमि विरासत में मिलने में कठिनाई होती है।
उत्तर प्रदेश का भूमि वितरण कार्यक्रम: एक उदाहरण
2017 में उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले के सिरसी और करकद गाँवों में 331 भूमिहीन परिवारों को भूमि का वितरण किया गया।
- सिरसी में 80 भू-अधिकार दिए गए, जिनमें से 8 अकेली महिलाओं को मिले।
- करकद में 251 भू-अधिकार दिए गए, जिनमें से 16 अकेली महिलाओं को मिले।
इसका अर्थ यह हुआ कि केवल 7% भू-अधिकार अकेली महिलाओं को दिए गए। इस तरह की नीतियाँ महिलाओं के भूमि स्वामित्व को बढ़ावा देने के लिए अपर्याप्त साबित होती हैं।
महिलाओं के भूमि अधिकारों का महत्व
अध्ययनों से पता चला है कि भूमि अधिकार महिलाओं की आर्थिक सुरक्षा और निर्णय लेने की शक्ति को बढ़ाते हैं। यदि महिलाओं को भूमि का स्वामित्व दिया जाए, तो:
- उनकी आय और खाद्य सुरक्षा में वृद्धि होगी।
- वे कृषि में अधिक निवेश कर सकेंगी।
- पारिवारिक कल्याण में सुधार होगा।
- ग्रामीण अर्थव्यवस्था में स्थिरता आएगी।