पंजाब सरकार ने पर्यावरण पर पड़ रहे दुष्प्रभाव और तेजी से घटते भूजल स्तर को बचाने के लिए राज्य में हाइब्रिड धान और पूसा-44 किस्म की बिजाई पर प्रतिबंध लगा दिया है। इस निर्णय के खिलाफ न्यू किसान एग्रो एजेंसी और फेडरेशन ऑफ सीड इंडस्ट्री ऑफ इंडिया ने पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायालय में याचिका दायर की है। मामले की अगली सुनवाई 19 मई 2025 को होगी।
सरकार का निर्णय और तर्क
पंजाब सरकार के कृषि विभाग ने 7 अप्रैल 2025 को आदेश जारी कर हाइब्रिड धान और पूसा-44 की बिक्री व बुआई पर रोक लगाई। सरकार का कहना है कि ये बीज भूजल और पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहे हैं। कृषि एवं किसान कल्याण विभाग के निदेशक जसवंत सिंह ने बताया कि पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना के वर्षों के शोध के बाद यह फैसला लिया गया। शोध में पाया गया कि हाइब्रिड धान की किस्में पकने में अधिक समय लेती हैं, जिससे पानी की खपत बढ़ती है। पंजाब में पहले ही भूजल संकट गहरा है, जहां 150 में से 114 ब्लॉक में अत्यधिक पानी का दोहन हो रहा है। केवल 17 ब्लॉक में भूजल की स्थिति सामान्य है।
पर्यावरण और भूजल संकट
राज्यसभा सांसद और पर्यावरणविद बलबीर सिंह सीचेवाल ने कहा कि पंजाब के 78% ब्लॉक डार्क जोन में हैं, जहां भूजल स्तर खतरनाक रूप से नीचे जा रहा है। ऐसे में कड़े कदम उठाना जरूरी है। हाइब्रिड धान की खेती से पानी की अधिक खपत के साथ-साथ फसल अवशेष भी ज्यादा उत्पन्न होते हैं। इनकी लंबाई अधिक होने के कारण इन्हें खेत में मिलाना मुश्किल होता है, जिससे किसान अवशेष जलाने को मजबूर होते हैं। यह वायु प्रदूषण का बड़ा कारण है।
बैक्टीरियल ब्लाइट और स्मट बीमारी का खतरा
जसवंत सिंह ने बताया कि 1985 में बैक्टीरियल ब्लाइट का प्रकोप देखा गया था, जिसका कोई रासायनिक उपचार नहीं है। यह जीवाणुजन्य बीमारी धान सहित अन्य फसलों को प्रभावित करती है। पंजाब कृषि विश्वविद्यालय की कमेटी ने सिफारिश की थी कि केवल ऐसी धान की किस्में उगाई जाएं जो बैक्टीरियल ब्लाइट के प्रति प्रतिरोधी हों। हाइब्रिड धान इस बीमारी के प्रति संवेदनशील है और स्मट बीमारी का खतरा भी बढ़ाता है।
किसानों पर आर्थिक बोझ
कृषि मंत्री गुरमीत सिंह खुड़िया ने कहा कि हाइब्रिड बीज महंगे हैं और इनसे खेती की लागत दोगुनी हो जाती है। कीटनाशक, खाद और अन्य रसायनों पर अतिरिक्त खर्च के बावजूद किसानों को नुकसान होता है। इसके अलावा, हाइब्रिड धान से बना चावल भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के गुणवत्ता मानकों पर खरा नहीं उतरता, जिससे चावल मिल संचालकों को भी नुकसान उठाना पड़ता है।
पारंपरिक बीजों की वकालत
पर्यावरण के लिए काम करने वाली संस्था आकृति के अध्यक्ष अनुज सैनी ने बताया कि पारंपरिक धान की किस्में रोगप्रतिरोधी होती हैं और बैक्टीरियल ब्लाइट का प्रभाव उन पर कम होता है। सरकार का कहना है कि हाइब्रिड बीज लॉबी किसानों से मनमाने दाम वसूलती है और पिछले साल खराब बीजों की शिकायतें भी सामने आई थीं, जिससे किसानों को भारी नुकसान हुआ।
विरोध के कारण
अनुज सैनी का कहना है कि हाइब्रिड बीज लॉबी नहीं चाहती कि सरकार का पारंपरिक बीजों को बढ़ावा देने का प्रयास सफल हो, क्योंकि इससे उनका व्यवसाय प्रभावित होगा। प्रगतिशील किसान अशोक चौहान ने बताया कि हाइब्रिड धान की खेती में प्रति एकड़ लागत अधिक आती है। इसकी फसल को पांच से छह बार कीटनाशक छिड़काव की जरूरत पड़ती है और लंबी होने के कारण यह खेत में गिर जाती है, जिससे कटाई मुश्किल होती है। उत्पादन अधिक होने का दावा करने वाले लागत को नजरअंदाज करते हैं।
किसानों का संकट
धान की रोपाई नजदीक आने के साथ किसान असमंजस में हैं। पटियाला के किसान सरदुल सिंह विर्क ने कहा कि रोपाई 1 जून से शुरू होती है और इसके लिए एक महीने पहले पनीरी तैयार करनी पड़ती है। अदालत का फैसला जल्द नहीं आया तो स्थिति और जटिल हो जाएगी। अमृतसर के किसान सुखपाल सिंह और अर्जुन दास ने बताया कि हाइब्रिड धान से उत्पादन तो अधिक होता है, लेकिन बीमारियों का जोखिम और लागत भी ज्यादा है। पारंपरिक बीजों से उत्पादन कम होता है, लेकिन जोखिम भी कम रहता है।
कानूनी विवाद
याचिकाकर्ताओं के वकील हरीश मेहला ने तर्क दिया कि बीज अधिनियम, 1966 के तहत केवल केंद्र सरकार को बीजों की गुणवत्ता नियंत्रित करने का अधिकार है। राज्य सरकार इस पर प्रतिबंध नहीं लगा सकती। सभी डीलर केंद्र सरकार से प्रमाणित बीज बेच रहे हैं। दूसरी ओर, पंजाब सरकार ने दावा किया कि “पूर्वी पंजाब सुधारे गए बीज और पौधे अधिनियम, 1949” के तहत उन्हें यह अधिकार है। केंद्र सरकार ने कोर्ट में कहा कि पंजाब सरकार का प्रतिबंध गलत है, क्योंकि बीज अधिनियम, 1966 की धारा 5 के तहत इन बीजों को प्रमाणित और पंजाब में सिफारिश किया गया है।
पंजाब में धान की खेती
पंजाब में 31.94 लाख हेक्टेयर में धान की खेती होती है, जिसमें 50% से अधिक क्षेत्र में हाइब्रिड और पूसा-44 की किस्में बोई जाती थीं। सरकार का यह कदम पर्यावरण और भूजल संरक्षण की दिशा में महत्वपूर्ण माना जा रहा है, लेकिन किसानों और बीज उद्योग के बीच विवाद ने इसे जटिल बना दिया है।