पंजाब के पठानकोट जिले में बसा नरोट मेहरा गांव अपनी लीची की खेती के लिए मशहूर है। इस गांव के बगीचों में हर तरफ लीची के पेड़ हैं, और इनके बीच जगह-जगह मधुमक्खियों के बक्से रखे हुए हैं। ये मधुमक्खियां न केवल शहद देती हैं, बल्कि लीची की फसल को बढ़ाने में भी अहम भूमिका निभाती हैं।
28 मार्च 2025 को जब डाउन टू अर्थ की टीम इस गांव पहुंची, तो उन्होंने देखा कि खेतों में टेंट लगाकर कुछ लोग रह रहे हैं। ये लोग राजस्थान के भरतपुर से आए मधुमक्खी पालक हैं, जो डेढ़ से दो सप्ताह पहले यहां पहुंचे हैं।
मधुमक्खियों का इंतजार और लीची के फूल
ये मधुमक्खी पालक लीची के पेड़ों पर फूल खिलने का इंतजार कर रहे हैं। जैसे ही फूल खिलेंगे, वे अपने बक्सों में बंद मधुमक्खियों को आजाद कर देंगे। मधुमक्खियां लीची के फूलों से रस इकट्ठा करके अपनी कॉलोनी में लाएंगी, जहां से मधुमक्खी पालक शहद निकालेंगे। इस प्रक्रिया में मधुमक्खियां लीची के फूलों का परागण भी करेंगी, जिससे लीची की फसल बेहतर होगी।
भरतपुर के हरवीर सिंह पाली भी दस दिन पहले नरोट मेहरा पहुंचे हैं। इससे पहले उनकी मधुमक्खियां भरतपुर में सरसों के खेतों में थीं। अब वे अपनी मधुमक्खियों के साथ यहां आए हैं और लगभग 20 दिन तक यहीं रहेंगे। इसके बाद वे कश्मीर की ओर रवाना होंगे। हरवीर सिंह लीची किसानों से कोई पैसा नहीं लेते। इसके बदले वे किसानों को थोड़ा शहद दे देते हैं।
हरवीर बताते हैं, “लीची के फूलों से अच्छी मात्रा में शहद मिलता है, जिसे हम बेचते हैं। लीची के फूलों से बना शहद स्वाद में खास होता है, क्योंकि इसमें लीची की खुशबू और स्वाद होता है। इसकी बाजार में अच्छी मांग है।”
लीची के बगीचे और मधुमक्खियों का सहयोग
नरोट मेहरा के किसान शमशेर सिंह के पास डेढ़ एकड़ जमीन है, जहां उन्होंने लीची के पेड़ लगाए हैं। ये पेड़ करीब 40 साल पुराने हैं। इस समय उनके पेड़ों पर फूल आने की तैयारी है। शमशेर ने अपने बगीचे का एक हिस्सा खाली छोड़ा है, जहां मधुमक्खियों के बक्से रखे जाते हैं। वे कहते हैं, “मधुमक्खियों के परागण की वजह से लीची की फसल 30 से 40 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। इसलिए मैं अपने खेत का एक हिस्सा इनके लिए खाली रखता हूं।”
जब मधुमक्खी पालक परागण के बाद यहां से चले जाते हैं, तो शमशेर उस खाली जमीन पर ज्वार, बाजरा या हरा चारा उगाते हैं। वे बताते हैं कि पहले उनके इलाके में चमगादड़ और मधुमक्खियां दोनों परागण में मदद करते थे, लेकिन पिछले 20-25 सालों में चमगादड़ों की संख्या कम हो गई।
शुरू में कश्मीर के मधुमक्खी पालक उनके खेतों में आते थे और थोड़ी सी जगह मांगते थे। लेकिन अब कई सालों से राजस्थान के भरतपुर से मधुमक्खी पालक यहां आ रहे हैं।
हिमाचल से आए मधुमक्खी पालक
हिमाचल प्रदेश के शिमला जिले के जुब्बल कोटखाई इलाके के निकम चौहान भी मधुमक्खी पालक हैं। वे 15 दिन पहले भरतपुर में थे और अब अपनी 200 मधुमक्खी कॉलोनियों के साथ नरोट मेहरा पहुंचे हैं।
वे अप्रैल के अंत तक यहां रहेंगे। निकम बताते हैं, “अगर सब कुछ ठीक रहा तो एक कॉलोनी से 8 से 10 किलोग्राम शहद मिल सकता है। इसके बाद हम कश्मीर के पुलवामा के जंगलों में जाएंगे, जहां जंगली फूल खिल रहे होंगे और मधुमक्खियों के लिए मौसम भी अनुकूल होगा।”
किसानों और मधुमक्खी पालकों का बढ़ता सहयोग
मधुमक्खी पालकों और किसानों के बीच अब एक खास रिश्ता बन गया है। मधुमक्खियां जहां किसानों के लिए परागण करके फसल बढ़ाती हैं, वहीं मधुमक्खी पालकों को शहद का उत्पादन मिलता है। यही वजह है कि अब किसान मधुमक्खी पालकों को न केवल अपने खेतों में बुलाते हैं, बल्कि उनके लिए जगह और सुविधाएं भी उपलब्ध कराते हैं।
निकम चौहान, जो 33 साल से मधुमक्खी पालन कर रहे हैं, बताते हैं कि सरसों की खेती मधुमक्खी पालकों के लिए सबसे फायदेमंद होती है। अक्टूबर के बाद ज्यादातर मधुमक्खी पालक राजस्थान के उन इलाकों में चले जाते हैं, जहां सरसों की खेती होती है। पहले जब वे किसानों से अपने बक्सों के लिए जगह मांगते थे, तो कई बार किसान मना कर देते थे या किराया मांगते थे। मजबूरी में मधुमक्खी पालकों को किराया देना पड़ता था। लेकिन अब स्थिति बदल गई है।
किसानों को समझ आ गया है कि मधुमक्खियों की वजह से उनकी फसल का उत्पादन बढ़ता है। इसलिए अब वे मधुमक्खी पालकों को खुलकर बुलाते हैं और उनके लिए खेतों में जगह भी खाली रखते हैं।