भारत में जल संकट गहराता जा रहा है। प्रति व्यक्ति ताजा पानी की उपलब्धता 1,700 घन मीटर के अंतरराष्ट्रीय मानक से कम होने के कारण भारत दुनिया में 132वें स्थान पर है। 1950 से 2024 के बीच सतही जल की उपलब्धता में 73% की कमी आई है। यदि यह स्थिति अनियंत्रित रही, तो भारत जल अभावग्रस्त देश बन सकता है, जहां प्रति व्यक्ति पानी 1,000 घन मीटर से कम होगा। दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु जैसे शहर जल स्रोतों के सूखने की कगार पर हैं। तेज शहरीकरण और जलवायु परिवर्तन से बाढ़, सूखा और जल संकट बढ़ रहा है।
इस संकट का एक समाधान है गंदे पानी का उपचार और पुनः उपयोग। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार, 2020-21 में भारत के शहरों से प्रतिदिन 72,368 मिलियन लीटर (एमएलडी) सीवेज निकला, जिसमें से केवल 28% (20,236 एमएलडी) का उपचार हुआ। शेष 72% बिना साफ किए नदियों और तालाबों में बहा दिया गया। उपचार क्षमता भी सीमित है, केवल 31,841 एमएलडी, जिसमें से 26,869 एमएलडी ही उपयोग हो रहा है। 2050 तक अपशिष्ट जल 4,800 करोड़ घन मीटर तक पहुंच सकता है, जो वर्तमान उपचार क्षमता से 3.5 गुना ज्यादा होगा।
केंद्र सरकार ने शहरों के लिए 20% उपचारित पानी के पुनः उपयोग को अनिवार्य किया है। दिल्ली में 49% उपचारित पानी बागवानी, झील पुनर्भरण और सिंचाई में उपयोग हो रहा है। राजस्थान में 29%, हरियाणा में 15%, कर्नाटक में 43%, और तमिलनाडु में 17% उपचारित पानी पुनः उपयोग हो रहा है। उत्तर प्रदेश में यह आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) की रिपोर्ट के अनुसार, उपचारित पानी का उपयोग खेती, उद्योग और झील पुनर्भरण में हो सकता है।
हालांकि, चुनौतियां भी हैं। कई सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) मानकों पर खरे नहीं उतरते। नीतिगत स्तर पर स्पष्ट कार्ययोजना और निगरानी की कमी है। फिर भी, उपचारित पानी का पुनः उपयोग जल संकट से निपटने का प्रभावी तरीका है। इसे बढ़ावा देने के लिए ठोस नीतियां, उन्नत तकनीक और जागरूकता जरूरी है।