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प्लास्टिकल्चर: भारतीय कृषि में प्लास्टिक का बढ़ता उपयोग और पर्यावरणीय प्रभाव

by kishanchaubey
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Plasticulture: कृषि में प्लास्टिक आधारित तकनीकों का उपयोग, जिसे प्लास्टिकल्चर कहा जाता है, आधुनिक खेती का अहम हिस्सा बन चुका है। मल्चिंग शीट, ड्रिप सिंचाई, पॉलीहाउस, सिंचाई पाइप, पॉन्ड लाइनर और शेड नेट जैसे प्लास्टिक उत्पादों का उपयोग तेजी से बढ़ा है। हालांकि, इनका पर्यावरण और स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ रहा है, क्योंकि ये प्लास्टिक अक्सर सिंगल-यूज होते हैं और जल्दी खराब हो जाते हैं, जिससे मिट्टी और पानी में माइक्रो और नैनोप्लास्टिक प्रदूषण बढ़ता है।

भारतीय किसान और प्लास्टिकल्चर का बढ़ता उपयोग

जयगौड़ा की कहानी: क्या कोई विकल्प है?

कर्नाटक के बेलगावी जिले के अलरवाड़ा गांव के किसान श्रीधर जयगौड़ा धान की फसल की तैयारी में जुटे हैं। हाल ही में उन्होंने शिमला मिर्च की कटाई पूरी की और अब खेतों से प्लास्टिक मल्चिंग शीट हटाने का काम कर रहे हैं। उनके 5 एकड़ के खेत से हर सीजन में करीब 40,000 फीट (12 किमी) सिंगल-यूज प्लास्टिक निकलता है।

वे सवाल करते हैं, “क्या हमारे पास कोई और विकल्प है?”

प्लास्टिक मल्चिंग का उपयोग किसानों को आकर्षित करता है क्योंकि यह:

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  • खरपतवार रोकता है।
  • पानी का वाष्पीकरण कम करता है।
  • मिट्टी की नमी बनाए रखता है।
  • फसल उत्पादन बढ़ाता है।
  • मजदूरी लागत घटाता है।

उत्तर कर्नाटक के इस उपजाऊ क्षेत्र में जयगौड़ा जैसे हजारों किसान पिछले 5 सालों से प्लास्टिकल्चर और ड्रिप सिंचाई अपना रहे हैं।

भारतीय कृषि में प्लास्टिक का बढ़ता प्रभाव

मल्चिंग तकनीक और पर्यावरणीय चुनौतियाँ

1980 के दशक में भारत में प्लास्टिकल्चर की शुरुआत हुई, लेकिन पिछले 10 वर्षों में इसका तेजी से विस्तार हुआ है।

  • संरक्षित खेती (ग्रीनहाउस खेती) में 90% से अधिक किसान प्लास्टिक मल्चिंग और ड्रिप सिंचाई का उपयोग कर रहे हैं।
  • 15 से 30 माइक्रोन मोटी प्लास्टिक शीट का बड़े पैमाने पर उपयोग हो रहा है, जबकि 120 माइक्रोन से कम मोटाई वाली प्लास्टिक पर प्रतिबंध है।
  • एक एकड़ खेत के लिए करीब 8000 फीट (2.4 किमी) प्लास्टिक शीट की जरूरत होती है।
  • उपयोग के बाद इस प्लास्टिक का सिर्फ 5% ही रिसाइकिल होता है।

माइक्रोप्लास्टिक: मिट्टी और खाद्य सुरक्षा के लिए खतरा

हाल ही में शोध में पाया गया कि भारतीय चीनी और नमक में माइक्रोप्लास्टिक मौजूद है। यह दर्शाता है कि हमारे खाद्य उत्पादन तंत्र में प्लास्टिक गहराई से समा चुका है।

प्लास्टिकल्चर से जुड़े खतरे:

  1. मिट्टी और पानी में प्लास्टिक प्रदूषण – प्लास्टिक शीट्स के छोटे-छोटे टुकड़े मिट्टी में मिल जाते हैं, जो बाद में खाद्य श्रृंखला में प्रवेश कर सकते हैं।
  2. मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव – प्लास्टिक के सूक्ष्म कण (MNPs) रक्त वाहिकाओं में पहुंचकर स्ट्रोक और हृदय रोग का कारण बन सकते हैं।
  3. जलवायु परिवर्तन का प्रभाव – तापमान बढ़ने से प्लास्टिक का विघटन तेज हो जाता है, जिससे और ज्यादा प्रदूषण फैलता है।

भारत में प्लास्टिकल्चर नीति और सरकारी सब्सिडी

भारत सरकार बागवानी और संरक्षित खेती को बढ़ावा देने के लिए प्लास्टिकल्चर पर 50% सब्सिडी देती है।

  • FAO की 2021 रिपोर्ट के अनुसार, 2019 में कृषि क्षेत्र में 12.5 लाख टन प्लास्टिक का उपयोग हुआ।
  • 2030 तक प्लास्टिक मल्चिंग की मांग में 50% बढ़ोतरी का अनुमान है।

क्या प्लास्टिकल्चर अपरिहार्य है?

2050 तक दुनिया की आबादी 10 अरब हो जाएगी, जिससे खाद्य उत्पादन की मांग बढ़ेगी। भारत में पहले से ही:

  • खेती के लिए 70% भूजल का उपयोग किया जा रहा है।
  • 75% जंगल काटे जा चुके हैं।
  • जलवायु परिवर्तन की घटनाओं में वृद्धि हो रही है।

इन समस्याओं को हल करने के लिए प्लास्टिकल्चर को बढ़ावा दिया जा रहा है, लेकिन इससे पर्यावरणीय जोखिम भी बढ़ रहे हैं।

पर्यावरण-अनुकूल विकल्प और समाधान

अगर प्लास्टिकल्चर को अपनाना जरूरी है, तो इसके प्रभावों को कम करने के लिए टिकाऊ समाधान अपनाने होंगे।

संभावित विकल्प:

  1. बायोडिग्रेडेबल मल्चिंग शीट्स – प्राकृतिक रूप से नष्ट होने वाली शीट्स का उपयोग करें।
  2. पारंपरिक मल्चिंग तकनीकें – पुआल, सूखी घास, नारियल का कवच आदि का उपयोग करें।
  3. रीसाइक्लिंग इंफ्रास्ट्रक्चर – इस्तेमाल किए गए प्लास्टिक को इकट्ठा करने और पुनर्चक्रण की व्यवस्था करें।
  4. नीतिगत बदलाव – कृषि क्षेत्र में सिंगल-यूज प्लास्टिक पर कठोर प्रतिबंध लागू किए जाएं।
  5. किसानों को जागरूक करें – प्लास्टिक जलाने से होने वाले प्रदूषण और इसके प्रभावों के बारे में शिक्षित करें।

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