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जलवायु परिवर्तन और देसी पशुधन: शुष्क क्षेत्रों में जीवन का सहारा

by kishanchaubey
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Climate Change : भारत के सूखा प्रभावित शुष्क क्षेत्रों में बढ़ता तापमान और अनियमित बारिश पशुधन की सेहत और उत्पादकता पर बुरा असर डाल रही है। हाल ही में किए गए एक अध्ययन में यह सामने आया है कि भारत की देसी पशुधन नस्लें इन जलवायु चुनौतियों का सामना करने में अधिक सक्षम हैं। इसकी वजह है कि ये नस्लें पीढ़ियों से इन कठिन परिस्थितियों के अनुकूल होती रही हैं।

देसी नस्लों की जलवायु सहनशीलता

राजस्थान के बीकानेर स्थित आईसीएआर-राष्ट्रीय ऊंट अनुसंधान केंद्र के वरिष्ठ वैज्ञानिक वेद प्रकाश बताते हैं, “बढ़ता तापमान और अनियमित बारिश पशुधन की प्रजनन क्षमता, दूध उत्पादन और स्वास्थ्य पर बुरा असर डालती है। बहुत ज्यादा गर्मी से मादा मवेशियों का प्रजनन चक्र प्रभावित होता है और नर मवेशियों की वीर्य गुणवत्ता घटती है। इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन के कारण बीमारियों का खतरा भी बढ़ रहा है।”

देसी पशुधन की अनूठी विशेषताएं:

  • जेबू मवेशी: हल्के शरीर और बड़ी सतह क्षेत्र वाली यह नस्ल गर्मी को आसानी से सहन कर सकती है। इनके शरीर में मौजूद HSF1 जीन तनाव के समय प्रतिरक्षा और चयापचय को बेहतर बनाता है।
  • थारपारकर और ओंगोल मवेशी: ये नस्लें कम चारे और पानी में भी जीवन यापन कर सकती हैं।
  • मारवाड़ी और जैसलमेरी भेड़: ये भेड़ें लंबी दूरी तय करके कम वनस्पति में भी चारा ढूंढ सकती हैं।
  • जैसलमेरी ऊंट: कम पानी के सेवन के साथ रेतीले इलाकों में चलने की बेजोड़ क्षमता रखता है।

जलवायु परिवर्तन से निपटने की रणनीतियां

शोध में बताया गया है कि भारत का लगभग 12% भूभाग शुष्क क्षेत्र है, जो राजस्थान, गुजरात, आंध्र प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और कर्नाटक जैसे राज्यों में फैला है। इन क्षेत्रों में सालाना 100-500 मिमी तक कम बारिश होती है और तापमान 1°C से 48°C तक रहता है।

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इस स्थिति से निपटने के लिए विशेषज्ञ आनुवंशिक मार्करों की पहचान करने पर काम कर रहे हैं, जो पशुधन को अधिक सहनशील बनाने में मदद कर सकते हैं।

ग्रामीण समुदाय और अर्थव्यवस्था पर प्रभाव

ग्रामीण अर्थव्यवस्थाओं में पशुधन महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह आय, भोजन और खाद जैसे संसाधन प्रदान करता है। लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण सूखा, अनियमित बारिश और चरम मौसम की घटनाएं इन प्रणालियों को बाधित करती हैं।

साहिवाल, गिर और लाल सिंधी मवेशियों जैसी नस्लें गर्मी सहने और उच्च गुणवत्ता का दूध देने के लिए जानी जाती हैं। वहीं, बन्नी भैंस रात में चरने और कम वनस्पति वाले क्षेत्रों में भी अच्छा प्रदर्शन करने के लिए मशहूर है।

जलवायु परिवर्तन में देसी नस्लों की भूमिका

पशुधन उत्पादन ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करता है, लेकिन देसी नस्लें कम संसाधनों में अधिक उत्पादन करती हैं, जिससे पर्यावरण पर कम असर पड़ता है।

खराई ऊंट जैसे पशु तटीय और मैंग्रोव पारिस्थितिक तंत्र में चर सकते हैं, जिससे पर्यावरण संरक्षण को बढ़ावा मिलता है। इस तरह, देसी पशुधन न केवल जलवायु सहनशीलता में मदद करता है, बल्कि जैव विविधता बनाए रखने में भी सहायक होता है।

नतीजा

जलवायु परिवर्तन के बढ़ते खतरे के बीच, देसी पशुधन नस्लें न केवल भारत के शुष्क क्षेत्रों में जीवन का सहारा बनती हैं, बल्कि ये जलवायु संकट का समाधान भी पेश करती हैं। इनकी आनुवंशिक विशेषताओं और लचीलेपन को ध्यान में रखकर इनके संरक्षण और प्रोत्साहन पर जोर देना जरूरी है।

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