भारत में पहली बार, 21वीं पशुधन गणना के तहत चरवाहा समुदाय और उनके पशुधन की गणना की जाएगी। यह गणना 25 अक्टूबर से शुरू हुई है, और इसके तहत चरवाहा समुदायों की संख्या और उनके पशुधन क्षेत्र में योगदान को समझा जाएगा। इससे पहले, 1919 में पहली पशुधन गणना से लेकर अब तक, चरवाहा समुदाय और उनके पशुधन की गिनती नहीं की गई थी।
चरवाहा गणना क्यों है महत्वपूर्ण?
भारत में बड़ी संख्या में चरवाहा समुदाय हैं, जो हर साल अपने पशुओं के साथ एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में यात्रा करते हैं। इन यात्राओं का मुख्य उद्देश्य पशुओं के लिए चारा और उपयुक्त चरागाह ढूंढना होता है। विशेषज्ञों के अनुसार, देशभर में लगभग 20 मिलियन चरवाहे जंगलों और घास के मैदानों में अपने पशुओं को चराने का कार्य करते हैं। हालांकि, अब तक इनके योगदान को आधिकारिक तौर पर मान्यता नहीं मिली थी।
चरवाहा समुदाय पारंपरिक और टिकाऊ खाद्य प्रणाली में योगदान करते हैं और इनके चरने से घास के मैदानों का पुनर्जीवन होता है, जो कार्बन सिंक का कार्य करता है।
कैसे होगी गणना?
चूंकि चरवाहा समुदाय चारे की खोज में लगातार चलते रहते हैं, इस गणना को घर-घर जाकर करना चुनौतीपूर्ण होगा। इसलिए, सरकार ने इस कार्य के लिए सहजीवन, सेंटर फॉर पेस्टोरलिज्म, वाटरशेड सपोर्ट सर्विसेज एंड एक्टिविटीज नेटवर्क (WASSAN) और फाउंडेशन फॉर इकोलॉजिकल सिक्योरिटी (FES) जैसी गैर-सरकारी संस्थाओं का सहयोग लिया है। इन संगठनों के साथ-साथ चरवाहा नेताओं और युवाओं की भी मदद ली जाएगी ताकि डेटा संग्रह में किसी को छूटे नहीं।
गणना के दौरान, एक चरवाहे को परिभाषित करने के लिए दिशा-निर्देश भी तय किए गए हैं। एक चरवाहा वह माना जाएगा, जिसका पशुधन साल में कम से कम एक महीने के लिए गांव से बाहर चारा ढूंढने जाता है और जो अपने पशुओं के लिए सामुदायिक संसाधनों (जैसे कि गांव का सामान्य चरागाह, घास के मैदान और जल निकाय) पर निर्भर होता है।
इस गणना से चरवाहों को क्या लाभ मिलेगा?
गणना से चरवाहा समुदाय के प्रसार का सटीक आंकड़ा मिल सकेगा, जिससे सरकार को उनके लिए विशेष योजनाएं और स्वास्थ्य कार्यक्रम बनाने में मदद मिलेगी। इससे यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि ये समुदाय सरकारी योजनाओं का लाभ उठा सकें, और उनके जीवन-यापन की कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए नीतियाँ बनाई जा सकें। इसके अलावा, पारंपरिक चरवाहा मार्गों को सुरक्षित और सुविधाजनक बनाने के लिए कदम उठाए जा सकेंगे, जिनमें रुकने की जगहें, पानी के ढांचे, और स्वास्थ्य सुविधाएँ शामिल हैं।
गणना में पारंपरिक चरवाहा समुदायों की पहचान के लिए 24 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को चुना गया है। इन राज्यों में गुजरात, राजस्थान, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, कर्नाटक, ओडिशा, तमिलनाडु, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, लद्दाख, जम्मू और कश्मीर, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, बिहार, सिक्किम, पश्चिम बंगाल, पंजाब, हरियाणा, केरल, झारखंड और असम शामिल हैं।
पर्यावरण एवं स्वास्थ्य पर प्रभाव
चरवाहा समुदायों की यह प्रणाली पर्यावरण के लिए भी फायदेमंद है, क्योंकि ये समुदाय चरागाहों को बनाए रखने में मदद करते हैं। जानवरों के चरने से पौधों की पुनर्रचना होती है, जो कार्बन का अवशोषण करने में सहायक है। इससे ग्रीनहाउस गैसों में कमी आती है और जैव विविधता भी बनी रहती है।
चरवाहा समुदाय का स्वस्थ रहना महत्वपूर्ण है, क्योंकि वे अपने पशुओं के साथ दूर-दराज के क्षेत्रों में यात्रा करते हैं। इसके लिए स्वच्छ जल, स्वास्थ्य सुविधाएँ और पौष्टिक भोजन की उपलब्धता आवश्यक है। सरकार की योजनाओं और समर्थन से चरवाहों को उनकी यात्रा के दौरान स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ मिल सकता है और पर्यावरण पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।