भारत में पक्षियों की आबादी में गिरावट कोई नई बात नहीं है, लेकिन हाल ही में आई एक रिपोर्ट में यह खुलासा किया गया है कि 1992 से 2002 के बीच गिद्ध प्रजातियों की संख्या में सबसे बड़ी गिरावट देखी गई, और पिछले 50 वर्षों में खुले पारिस्थितिक तंत्रों से पक्षियों की जनसंख्या में महत्वपूर्ण कमी आई है।
1992 और 2002 के बीच सफेद पीठ वाले गिद्ध, भारतीय गिद्ध और पतली चोंच वाले गिद्धों की आबादी में क्रमश: 98 फीसद और 93 फीसद की गिरावट दर्ज की गई। लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट 2024 के अनुसार, इन शीर्षस्थ शिकारी पक्षियों की आबादी में गिरावट की तुलना 1980 के दशक की जनसंख्या से की गई है।
रिपोर्ट में गिद्धों की आबादी में गिरावट का कारण व्यापक रूप से उपयोग की जाने वाली दवाओं जैसे डाइक्लोफेनैक, एसिक्लोफेनैक, केटोप्रोफेन और निमेसुलाइड को बताया गया है। पिछले साल भारत में एसिक्लोफेनैक और केटोप्रोफेन पर प्रतिबंध लगाया गया था। इसके अलावा, कुछ क्षेत्रों में मवेशियों के शवों में जहर मिलने और उच्च वोल्टेज बिजली के तारों से करंट लगने की घटनाओं को भी इस गिरावट का कारण बताया गया है।
रिपोर्ट में पक्षियों के घटते प्राकृतिक आवासों पर भी चिंता जताई गई है, जिसमें घास के मैदान, अर्ध-शुष्क भूमि और रेगिस्तान जैसे खुले प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र शामिल हैं। इसके साथ ही मानव द्वारा बनाए गए कृषि भूमि, चरागाह और परती भूमि भी शामिल हैं।
कीटों की स्थिति भी चिंताजनक है रिपोर्ट में कीटों और परागणकर्ताओं की विविधता और उनकी गिरावट के बारे में भी चिंता व्यक्त की गई है। भारत में अकशेरुकी प्रजातियों की संख्या और गिरावट के बारे में अनिश्चितता को भी एक गंभीर मुद्दा माना गया है।
लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट 2016 के अनुसार, 22 देशों में घास के मैदानों में तितलियों की संख्या में 33% की गिरावट दर्ज की गई है। इसी तरह, कुछ अनौपचारिक आंकड़ों के अनुसार, ओडिशा में 2002 की तुलना में देशी मधुमक्खियों की संख्या में 80% की कमी आई है।
रिपोर्ट में इस बात पर भी ध्यान दिया गया है कि मक्खियाँ, तितलियाँ, पतंगे और भृंग जैसे परागणकर्ताओं के समुदायों की स्थिति को लेकर जानकारी बेहद कम है।
भारत में बाघों की स्थिति बेहतर रिपोर्ट में भारत के बाघों की आबादी में वृद्धि को एक सकारात्मक संकेत बताया गया है। 2022 में हुए अखिल भारतीय बाघ जनगणना के अनुसार, देश में बाघों की संख्या 3,682 से बढ़कर 3,925 हो गई है। मध्य भारत, शिवालिक पहाड़ियों और गंगा के मैदानी इलाकों में इनकी संख्या में सुधार देखा गया है, खासकर मध्य प्रदेश, उत्तराखंड और महाराष्ट्र में।
हालांकि, रिपोर्ट ने यह भी चेतावनी दी है कि प्रकृति और जैव विविधता में गिरावट का एक महत्वपूर्ण बिंदु हो सकता है, जिसे ‘टिपिंग पॉइंट’ कहा जाता है, जिससे अपरिवर्तनीय बदलाव हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई में 1988 से 2019 के बीच शहरीकरण के कारण वहां के आर्द्रभूमियों में काफी कमी आई है।